Thursday, July 1, 2010

खुद-खुशी

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झिझकती सतह पे दो-चार सितारे

कठोर वास्तविकता के छुपे इशारे

शहर में कुओं की कमी है थोड़ी

मौत भी रात अब कहां गुज़ारे



दर्द का ज़ख्म से अब रिश्ता ना रहा

घूम रहा बदनाम एक शब्द जो कहा

बंद कमरे में राहत टटोलती ज़िंदगी

ढ़ूंढ़ती है छत पर एक कपड़े की जगह



बेज़ुबान पुल से आंकती गहराई

तराशा था जिसे उस ख्वाब की सच्चाई

जिस्म कुछ देर टहल सकता है हवा में

एक आज़ाद पंछी, ना कोई गवाही
 
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