उन शब्दों को सहेज रखा है मैंने
तुमने कहे थे मुझसे जो कभी
रात से टूटे तारों को
खाली पन्नों पे उतारा है
अक्सर यूंही मिल जाते हैं
सिलसिले मेरे हाथों में
बिखरे, कुछ सिमटे, तुम्हारे शब्द
बोलते, कुछ चुप, तुम्हारे शब्द
तस्वीरों के आईनों में
पुराने कोनों-किनारों पर
कुछ पुराने शब्द मिले
थोड़े मेरे थोड़े तुम्हारे
रात के कुछ टूटे तारे
काश.. से शुरु तुम्हारी बातें
ना जाने क्यूं फ़िर मिली मुझे
उंगलियों के बीच में जैसे तुम्हारी उंगलियां हों
कागज़ पे परछाई बनाती
सहर की कुछ रश्मियां हों
No comments:
Post a Comment