Tuesday, August 10, 2010

रात के कुछ टूटे तारे

उन शब्दों को सहेज रखा है मैंने

तुमने कहे थे मुझसे जो कभी

रात से टूटे तारों को

खाली पन्नों पे उतारा है


अक्सर यूंही मिल जाते हैं

सिलसिले मेरे हाथों में

बिखरे, कुछ सिमटे, तुम्हारे शब्द

बोलते, कुछ चुप, तुम्हारे शब्द


तस्वीरों के आईनों में

पुराने कोनों-किनारों पर

कुछ पुराने शब्द मिले

थोड़े मेरे थोड़े तुम्हारे

रात के कुछ टूटे तारे


काश.. से शुरु तुम्हारी बातें

ना जाने क्यूं फ़िर मिली मुझे

उंगलियों के बीच में जैसे तुम्हारी उंगलियां हों

कागज़ पे परछाई बनाती

सहर की कुछ रश्मियां हों

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